जीवन-यात्रा
टेस्सिटोरी का जन्म 13 दिसंबर 1887 को उडीन के उत्तर-पूर्वी इतालवी शहर में हुआ था, जो गुइल्डे टेस्सिटोरी, फाउंडलिंग अस्पताल के एक कार्यकर्ता और लुगिया रोजा वेनियर रोमानो के घर में हुआ था। विश्वविद्यालय जाने से पहले उन्होंने लिसो क्लासिको जैकोपो स्टेलिनी में अध्ययन किया। उन्होंने फ्लोरेंस विश्वविद्यालय में अध्ययन कर, 1910 में मानविकी में अपनी डिग्री प्राप्त की। वे एक शांत छात्र थे और उन्होंने संस्कृत, पाली और प्राकृत का अध्ययन किया। उनकी भारतीय संस्कृति और साहित्य में अत्यअधिक रूची होने के कारण उनके सहपाठी उन्हें भारतीय “लुई”/योद्धा उपनाम से संबोधित करते थे।
उत्तर भारतीय स्थानीय भाषाओं में एक अभिरुचि विकसित होने के बाद, टेस्सिटोरी ने राजस्थान में एक नियुक्ति प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत की। उन्होंने 1913 में इंडिया ऑफिस में आवेदन किया, यह समझते हुए कि नौकरी की कोई गारंटी नहीं थी। उन्होंने भाषाई कार्य की नियुक्त के लिए भारतीय राजाओं से भी संपर्क किया। इस समय के दौरान, उन्होंने एक जैन शिक्षक, विजया धर्म सूरी (1868-1923) के साथ संपर्क स्थापित किया, जिनके साथ उनका घनिष्ठ व्यक्तिगत और व्यावसायिक संबंध थे। सूरी जैन साहित्य के अपने गहन ज्ञान के लिए जाने माने जाते थे और उन्होने जैन साहित्य के कई कार्यों की पुनर्प्राप्ति और संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। सूरी ने उन्हें राजस्थान के एक जैन स्कूल में एक पद की पेशकश की। एक विदेशी ईसाई का, जैन समुदाय में रहने वाली नाजुक स्थिति के बारे में जानते हुए भी टेस्सिटोरी ने इंडिया ऑफिस से आवेदन कर के स्वीकृति प्राप्त की और वे 1914 में भारत आ गये। भारत पहुचंने पर वे भाषाई सर्वेक्षण और पुरातत्व सर्वेक्षण दोनों के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ गये और उनके द्वारा किया अनवेषण इंडोलॉजी या भारत-विद्या के लिए एक मौलिक महत्व की खोज बन गया।
माँ की गंभीर बीमारी की खबर पा कर के वे 17 अप्रैल 1919 में इटली के लिए रवाना हुए। लेकिन जब तक वे इटली पहुंचे, तब तक उनकी माँ का देहाँत हो चुका था। कई महीनों तक इटली में रह कर जब वे नवंबर में जहाज से भारत लौट रहे थे तब दुर्भाग्य से उन्हे स्पेनिश इन्फ्लूएंजा हो गया और वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। 22 नवंबर 1919 को बीकानेर में उनकी मृत्यु हो गई।
शोध और प्रारम्भिक कार्य
टेस्सिटोरी की विदेशी भाषाओं में स्वाभाविक रुचि थी और विश्वविद्यालय स्तर पर संस्कृत का अध्ययन करने के बाद वे फ्लॉरेंस विश्वविद्यालय से संस्कृत के स्नातक भी हुए। 1846 और 1870 के बीच वाल्मीकि रामायण के बंगाली या गौड़ा संस्करण के बारह खंड इटली में गैस्पेर गोरेसियो द्वारा प्रकाशित किए गए थे। जो इतालवी इंडीलॉजिस्ट के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ बन गये। टेस्सिटोरी की थीसिस भी इनके काम पर आधारित थी। उन्होने इसमें वाल्मीकि और तुलसीदास के संस्करण के बीच के संबंध का विश्लेषण किया था। उन्होंने इसमें दर्शाया कि लगभग एक हजार साल बाद अवधी में लिखी गई राम-चरित मानस में तुलसीदासजी ने वाल्मीकि से मुख्य कहानी उधार ली और फिर अपनी रूची के अनुसार विषय का विस्तार या कम कर के, एक काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया जो कि मूल रूप से स्वतंत्र था और इसलिए इसे एक नया काम माना जा सकता है। उन्होने दो संस्करणों की कविता-पद्य की तुलना कर के अपने श्रमसाध्य शोध में यह दर्शाया कि तुलसीदासजी ने उस समय भारत में मौजूद रामायण के विभिन्न संस्करणों का अनोखा मिश्रण किया था। उनकी थीसिस पाओलो एमिलियो पावोलिनी की देखरेख में १-९-18११ में प्रकाशित हुई। उन्होने 24 साल की उम्र में ही ‘रामचरित और रामायण’ विषय पर पहले इतालवी शोधार्थी होने का गौरव प्राप्त किया।
भाषाई सर्वेक्षण में योगदान
एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल ने टेस्सिटोरी को अपने भाषाई सर्वेक्षण में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया। उन्हें सर जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा राजपुताना के कवि या भाट संबंधी बर्दिक और ऐतिहासिक सर्वेक्षण का नेतृत्व करने का काम सौंपा गया था। वे 8 अप्रैल 1914 में आए और पांच साल तक राजपुताना में रहे। उन्होंने राजस्थान के मध्ययुगीन काल और कविताओं का अनुवाद किया और उन पर टिप्पणी की, जिनमें से कई का अध्ययन उन्होंने पहले फ्लोरेंस की राष्ट्रीय पुस्तकालय में किया था। उन्होंने पुरानी राजस्थानी के व्याकरण का, उसी तुलनात्मक पद्धतियों के साथ अध्ययन किया जैसा कि उन्होंने अपनी थीसिस या शोध के साथ किया था। इस तरह उन्होने आधुनिक इंडो-आर्यन वर्नाक्यूलर या जातीय प्राकृत भाषा के विकास के इतिहास की नींव रखी।
टेस्सिटोरी ने डिंगला और पिंगला बोलियों और वंशावली कथाओं में काव्य रचनाओं की खोज की। उन्होंने कुछ नौकरशाही विरोध के बावजूद निजी बार्डिक लाइब्रेरी और कई राजकीय पुस्तकालयों को सूचीबद्ध करने में कामयाबी हासिल की।
1915 में, बीकानेर के महाराजा द्वारा आमंत्रित, टेस्सिटोरी राजस्थान पहुंचे और क्षेत्रीय साहित्य का कोषगत (लेक्सिकोग्राफिक) और व्याकरणिक अध्ययन शुरू किया। वह यह दिखाने में सक्षम हुये कि पुरानी गुजराती नामक बोली के बोलने का ढंग से उसे पुरानी पश्चिमी राजस्थानी कहा जाना चाहिए।वे राजस्थानी बोलीयों की सुंदरता से अधिक प्रभावित थे। उन्होने कई साहित्यक रचनाओं का समालोचनात्मक और समीक्षात्मक संपादन किया। जैसे राठौड़ पृथ्वीराज (वि. 1606) द्वारा वेलि क्रिसण रुक्मणी री, चरण दास (1760-1836) की नासकेत री और बीठू सूजो(1598) की राव जैतसी रो छंद इत्यादि।
बार्डिक लाइब्रेरी: वह महाकाव्य या वीर कवितायें, जिनको अक्सर वीणा, गीत, या किसी भी तरीके से गा कर सुनाया जाये, उन रचनाओं का संग्रह। एक प्राचीन सेल्टिक संगीतकार और कविता के लेखकों के क्रम में से कोई भी कवि जैसे बार्ड, विलियम शेक्सपियर।
बीकानेर के प्रसिद्ध अभिलेखागार में टेस्सिटोरी अभिलेख कक्ष बना हुआ है जिसमें उन से जुड़ी तमाम सामग्री का प्रदर्शन किया गया है।इस कक्ष की सामग्री हजारी लाल बांठिया ने उपलब्ध कराई हैं।
पुरातत्त्व में योगदान
डॉ. लुइगी पियो टेस्सिटोरी जब प्राचीन भारतीय ग्रंथों में कुछ शोध कर रहे थे तब उस क्षेत्र के खंडहरों की मौर्य पूर्व काल और हड़प्पा संस्कृति की समानता से वे हैरान थे। उन्होंने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सर जॉन मार्शल से मदद मांगी। जो उस समय ए.एस.आई. हड़प्पा में खुदाई कर रहे थे, लेकिन वे खंडहरों के महत्व से अनजान थे।
अपने भाषाई कार्य के साथ, टेस्सिटोरी ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सर जॉन मार्शल की ओर से स्मारक स्तंभों, मूर्तियों, सिक्कों और पुरातात्विक स्थलों की खोज में जोधपुर और बीकानेर की यात्रा की।
टेस्सिटोरी को रंगमहल और अन्य स्थानों के टीलों के खनन से गुप्तकाल की टेरकोटा वस्तुयें प्राप्त हुई, साथ ही गंगानगर के पास देवी सरस्वती की दो विशाल संगमरमर की मूर्तियाँ भी। उन्हें दुलामनी और गंगानगर में कुषाण-साम्राज्य के समय का टेराकोटा सामान मिला। उन्होंने जोधपुर-बीकानेर क्षेत्र में पत्थर (गोवर्धन) स्तंभों और शिलालेख या बीजलेखों के लेखों की संकेतावली को हल कर प्रकाशित किया। उन्होंने बीकानेर रियासत के सैकड़ों गांवों में घूमकर लगभग 729 पुरालेखों और लगभग 981 मूर्तियाँ तथा पुरातत्व महत्व की अन्य चीजें खोज कर एकत्र की।
उन्होंने बीकानेर-गंगानगर क्षेत्र में इतिहासोन्मुख प्रोटो-ऐतिहासिक खंडहरों का उल्लेख किया, जो सही रूप से इंगित करते हैं कि ये मौर्यकालीन संस्कृति के हैं। इस खोज ने कालीबंगन की सिंधु घाटी सभ्यता स्थल की खोज और उत्खनन को सक्षम बनाया। उन्होंने 1919 में इटली के अपने संक्षिप्त प्रवास के दौरान सर जॉर्ज ग्रियर्सन को पत्र से,कालीबंगन से मिली दो वस्तुओं की खोज के विषय में सूचित किया और बताया कि,”उनमें से पहली एक मुहर हैं जिस पर अंकित लेख को पहचानने में असमर्थ हूँ और दूसरी वह वस्तु खंड़ जिस पर मुहर मिली। यह एक अत्यंत दिलचस्प खोज है: मेरा मानना है कि यह प्रागैतिहासिक या गैर-आर्यन हो सकते हैं। मुझे संदेह है कि मुहर पर अंकित लेख शायद एक विदेशी जाती होने की ओर संकेत करते हैं?”
ग्रियर्सन ने सुझाव दिया कि वह भारत लौटने पर उन्हें जॉन मार्शल को दिखाए। जब वह बीकानेर वापस आये तो उनके असामयिक निधन के कारण वे ऐसा नहीं कर पाये। सील के ज्ञान को उसके साथ दफन कर दिया गया और उसे तब ही बरामद किया गया जब कानपुर के एक व्यापारी हजारीमल बांठिया, इटली से उनके पत्राचार की प्रतियां भारत वापस लाए।
थार के इतालवी साधक का स्मृति स्थल
भारतीय सभ्यता व संस्कृति में विशेष रुचि रखने वाले टेस्सिटोरी ने खुद को थार की विकट जलवायु के अनुसार ढाला और यहां की संस्कृति में ऐसे रचे बसे कि यहां के ही होकर रह गए। महाराजा गंगासिंहजी ने उन्हे किले के पास ही राजपूत शैली की छतरी की समाधी में दफनाया। बीकानेर में टेस्सिटोरी के कब्र को स्मृति स्थल के रूप में विकसित किया गया हैं। 1982 से सालाना टेस्सिटोरी स्मृति समारोह की शुरुआत हुई।
संदर्भ:
(सामग्री बीकानेर अभिलेखागार में टेस्सीटोरी कक्ष में उपलब्ध सामग्री पर साभार आधारित)
डॉ. एल. पी. टेस्सीटोरी, मुरलीधर व्यास, Hazari Mull Banthia, Hazari lal Banthia,
L. P. Tessitori (1887-1919), Luigi Pio Tessitori, Wikipedia
Progress Report on the Preliminary Work done in connection with the Bardic and Historical Survey of Rajputana, 1916-1920) and in the «Bibliotheca Indica» (A Descriptive Catalogue of Bardic and Historical Manuscripts, 1917-1918; Vacanikā Rāṭhòṛa Ratana Siṅghajī rī Mahesadāsòta rī Khiṛiyā Jaga rī kahī,
1917 and Veli Krisaṇa Rukamanī rī Rāṭhòṛa rāja Prithī Rāja rī kahī,
1919, critical editions; Chanda rāu Jètā Sī rò. Vīthu Sūjè rò kiyò, also a critical edition, 1920).
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