फतेहपुर का इतिहास
फतेहपुर, राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र के सीकर जिले का एक तहसील कार्यालय का एक छोटा सा शहर है। जयपुर और सीकर शहर फ़तेहपुर के बाद में बसाया गया था। लेकिन आज यह सीकर जिले का एक हिस्सा बनकर रह गया हैं। फतेहपुर को शेखावाटी की सांस्कृतिक राजधानी भी कहा जाता है।
यह माना जाता हैं कि पहले यहाँ समुद्र हुआ करता था जो प्राकृतिक कारणों से यहाँ से हट कर दक्षिण में विस्थापित हो गया और यहाँ रेत का ढेर बन गया। भूगर्भवेता भी इस बात से सहमत हैं, क्योंकि यहाँ समुद्री जीव अवशेष, सीप, शंख, कौड़ी आदि बालू रेत में दबे मिलते रहते हैं। पुरातत्ववेताओं व इतिहासकारों का मानना है कि यह मरुस्थल महाभारत काल में महाराज विराट के साम्राज्य का अंग था। इसके बाद 2500 वर्षों का इतिहास अप्राप्त है।
फतेहपुर सांभर से हिसार के मार्ग पर स्थित था, जो नमक का एक प्रमुख व्यापार मार्ग था, इस कारण इसका सामरिक दृष्टि से बहुत महत्व था। पहले यह गांव ‘जाटों का बास’ के नाम से जाना जाता था। 1451 ई. तक चौधरी गंगा राम यहाँ फतेहपुर के शासक थे। सन् 1451 में चौधरी गंगा राम को हरा कर, नवाब फतेह खान ने अपने नाम पर फतेहपुर की स्थापना कर ‘जाटों का बास’ को उसमें विलिन कर लिया ।
फतेहखान कायमखानी नवाब थे। ये प्रसिद्ध गोगाजी के वंशज हैं जो 11वीं सदी में महमूद गजनवी से युद्ध करते हुए शहीद हो गये थे। फतेहखान के दादा करमचंद चाहिल वंशी ददरेवा के राजा मोटेराव चौहान के पुत्र थे।
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- राजस्थान के इतिहासकार मुंहता नेणसी के अनुसार हिसार के फौजदार सैयद नासिर ने ददरेवा को लूटा और वहां से दो बालक, एक करमचंद चौहान दूसरा एक जाट को उठा कर ले गए। उन्हें हांसी के शेख के पास रख दिया और जब सैयद मर गया तो वे बहलोल लोदी के पास में भेजे गए। करमचंद चौहान का नाम कायमखां तथा जाट का नाम जैनू रखा । बहलोल लोदी ने कायमखांन को हिसार का फौजदार बनाया।
- दूसरी मान्यता के अनुसार फ़िरोज़ शाह तुगलक ने राजा मोटेराव चौहान को पराजित कर उनके तीनों पुत्रों को करमचंद और उनके भाइयों को इस्लाम में परिवर्तित कर दिया था, जिन्होंने उनका नाम कायम खान और उनके भाइयों का ज़ैनुद्दीन खान और जबरुद्दीन खान रखा । कायमखानी शब्द न केवल कायम खान के वंशजों पर बल्कि उनके भाइयों के वंशजों पर भी लागू होता है। कायम खान दिल्ली सल्तनत का अमीर बन गया। जो भी हो लेकिन यह सिद्ध होता हैं कि जो भी वजह रही हो कायम खां ने फीरोज तुग़लक (1309-1388) के समय में इस्लाम मान लिया था।
- यह भी माना जाता हैं कि राजा मोटेराव चौहान को हराने पर फीरोज तुग़लक ने फौजदार सैयद नासिर हिसार-हांसी को नवाब बना दिया। उन्होने राजा मोटेराव चौहान के तीनों पुत्रों को इस्लाम में धर्म-परिवर्तन करवा दिया। सैयद नासिर ने कायम खां को अपने 12 बेटों के साथ पढ़ाया और उसकी योग्यता देखते हुए उसे अपना वारिस घोषित किया। उनकी मृत्यु के बाद सुल्तान फिरोजशाह ने कायम खां को मनसब संभालने के लिये कहा।
टिप्पणी: यदि हम समय-रेखा पर इन बातो को परखने का प्रयत्न करें तो यह पाते हैं कि-
फौजदार सैयद नासिर के ददरेवा के मोटेराव चौहान (अनुमादित सन् 1315-1325 ई.) को हराने पर दिल्ली के सुलतान फीरोज तुग़लक ने फौजदार सैयद नासिर हिसार-हांसी को नवाब बना दिया। फौजदार सैयद नासिर ने ददरेवा को लूटा और वहां से दो बालक एक करमचंद चौहान दूसरा एक जाट को उठा कर ले गए। उन्होने राजा मोटेराव चौहान के पाँच पुत्रों में से तीन पुत्रों का धर्म परिवर्तन करवा दिया। लेकिन वे बहलोल लोदी के पास में भेजे गए सही नहीं हो सकता क्योंकि यह प्रामाणित हैं कि बहलोल लोदी का जन्म 1.6.1401 ई.को हुआ था और सन् 1340 में कायमखान हिसार के हाकिम बन गये थे। उनकी मृत्यु खिज्र खान के हाथों 1420 ई. में 95 वर्ष की आयु में हुई। तो उनका जन्म तकरीबन 1324-25 ई. आता हैं। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि मोटेराव चौहान और फौजदार सैयद नासिर के बीच में लड़ाई 1324-25 ई. के बाद ही हुई होगी। यह प्रामाणिक हैं कि सैयद नासिर की मृत्यु के बाद सुल्तान फिरोजशाह ने कायम खां को मनसब संभालने के लिये कहा। तो इस बात मे भी सच्चाई दिखती हैं कि सैयद नासिर ने कायम खां को अपने 12 बेटों के साथ पढ़ाया और उसकी योग्यता देखते हुए उसे अपना वारिस घोषित किया।
नवाब कायम खान की सात हिन्दू स्त्रियाँ थी और छह बेटे थे। खिज्र खान के हाथों उनकी मृत्यु के बाद 1420-1446 ईस्वी तक कायम खान के दूसरे पुत्र ताज खान हिसार के नवाब बने। ताज खान की मृत्यु के बाद उनके सबसे बड़े बेटे फतेह खान को हिसार का नवाब बनाया गया। दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदी विरोध के कारण नवाब फतहखाँ हिसार में अपने को असुरक्षित समझने लगे। अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए निरंतर युद्ध करने पड़ते थे। वे हिसार से एक सुरक्षित स्थान की खोज में रिणाऊ नामक गाँव में आये। यहाँ आसपास की खुली जमीन, एक विशाल हरित क्षेत्र था और एक बड़ा ताल भी था। इसके आस-पास करीब एक-डेढ़ कि.मी. परिधि में कुछ छोटी-छोटी बस्तियाँ थी । यहाँ का भूतल नीचा होने से बाहर किसी भी तरफ से नजर नहीं आता था। नवाब ने इसे एक उपयुक्त व सुरक्षित स्थान समझ यहीं नया शहर बसाने का निश्चय किया। उन्होंने 1447 में फतेहपुर के किले का निर्माण शुरू कर दिया। इसी बीच बहलोल लोदी ने फतेहखान को हिसार से निष्कासित कर दिया। उन्होंने 1449 से 1474 तक फतेहपुर पर शासन किया। सन् 1451 में चौधरी गंगा राम को हरा कर, नवाब फतेह खान ने ‘जाटों का बास’ को फतेहपुर में मिला लिया। कहा जाता हैं कि जब फ़तेहखां 1449 ईस्वी में फतेहपुर आये तो अपने साथ पंडित, सेठ, साहूकार लेकर आये।
श्री किशनलाल ब्रह्मभट्ट की बही में लिखा है -“हरितवाल गोडवाल नारनोल से फतेहपुर आया, संवत 1503 (1449)की साल नवाब फ़तेहखां की वार में, चौधरी गंगाराम की वार में.” इस लेख से यह पुष्टी हो जाती हैं यह सब सही हैं। यह वही संवत है जब बहलोल लोदी ने बादशाह बनने के पूर्व ही हिसार और उसके आस-पास के क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया था।
शेखावाटी भूभाग क्यों कहा जाता हैं?
आमेर के कछवावंश के राजा उदयकरण (*स्वयं को श्री रामचन्द्र जी के वंशज मानते हैं ) के तीसरे पुत्र बालाजी शेखावतों के प्राचीन पुरुष है। बालाजी के पुत्र मोकल जी हुए और 1433 ई. में अमरसर में मोकल जी के घर महान योद्धा महाराव शेखा जी का जन्म हुआ। मोकल जी के निधन के बाद शेखा जी 16 वर्ष की आयु में राज गदी पर बैठे। वे न्याय प्रिय सर्वधर्म का सम्मान करने वाले थे । उन्होंने अपने जीवन मे अनेक युद्ध लड़े और विजयी हुए । महाराव शेखा जी ने अपना अंतिम युद्ध भी स्त्री सम्मान के लिए लड़ा था और सच्चे शासक की भांति युद्ध जीतने के बाद 1488 में अपने प्राण त्याग दिये। उन्ही के वंशज शेखावत कहलाते है। उन्होंने एक छत्र राज किया और आज उनके नाम से शेखावाटी भूभाग जाना जाता है।
टिप्पणी : *(हो सकता हैं कि इक्ष्वाकु वंश या ककुत्स्व कुल कालांतर में कछवावंश हो गया हो। आज भी आमेर के राजवंशी स्वयं को श्रीराम के वंशज मानते हैं।)
फतेहपुर के इतिहास की समय रेखा:
चौधरी गंगाराम शासन: १४५१ ई. तक शासन,
कायमखानी शासन: १४५१ ई.-१७३० ई तक १२ नवाबों ने कुल २७९ वर्षों तक शासन किया।
शेखावत शासन: १७३१ ई.-१९४७ ई तक १० शेखावत जागीरदारों ने २१६ वर्षों तक शासन किया।
(राव राजा सीकर शिव सिंह शेखावत ने १७३१ ई. में चैत्र शुक्ल १ के दिन फतेहपुर पर अधिकार किया।)
फतेहपुर कैसे पहुंचें:
सड़क मार्ग द्वारा:
जयपुर से फतेहपुर: 2 घंटा 36 मिनट (165.9 किमी): NH52
बस मार्ग द्वारा:
जयपुर से फतेहपुर के लिए रोजाना कई राजकीय और निजी बस सुविधायें हैं। आप चाहे तो टैक्सी या मिनी बस भी किराए पर ले कर शेखावाटी क्षेत्र में घूम सकते हैं, यहाँ टेम्पो बहुत आसानी से 20-30 रुपये के सामान्य किराये में मिल जाते हैं और इन से आप फतेहपुर के साथ आसपास के गाँव भी घूम सकते हैं ।
रेल मार्ग द्वारा:
जयपुर से फतेहपुर के लिए रोजाना दो ट्रेनें चलती हैं।
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- JU HWH SUPFAST #12308
- JP ALD EXPRESS #12404
फतेहपुर के पर्यटक स्थल:
राजस्थान के सीकर जिले में स्थित, फतेहपुर एक प्राचीन शहर है, जो शेखावाटी क्षेत्र का एक प्रमुख हिस्सा है। फतेहपुर उन पर्यटकों के लिए लोकप्रिय पर्यटक स्थल है जो एक नए गंतव्य को और एक विभिन्न कला और संस्कृति को देखना और समझना चाहते हैं। फतेहपुर, दिल्ली-जयपुर राजमार्ग पर आसानी से पहुँचा जा सकता है।
फतेहपुर धुमने के लिये सबसे अच्छा समय हैं होली से 10 दिन पहले से होली तक का। याने मार्च के अंत में क्योंकि इस दौरान मौसम बहुत खुशनुमा रहता है, रात को हल्की सी ठंड और दिन में हल्की सी गर्मी होती हैं। इस दौरान त्योहार का समय होने परआपको यहाँ की संस्कृति की हर झलक देखने को मिलेगी जैसे कि गींदड़ नृत्य, ग़ैर नृत्य, चंग – ढ़ोल बजाना इत्यादि।
राजथान की यह परंपरा रही हैं कि यहाँ वही व्यक्ति नगरसेठ कहला सकता था, जो इन चारो चीजो को अपने जीवन-काल में करता था और वे चार चीजें थी- मंदिर, बावड़ी, धर्मशाला और स्कुल बनवाना। जिस से समाज के हर तबको को सुविधा मिलती थी। फतेहपुर और उसके आसपास में देखने के लिए निम्न पर्यटक स्थल है:
हवेली:
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में व बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में यह भूभाग मालवा से हांसी (हिसार) के राजमार्ग पर पड़ता था। व्यापारियों के कारवां इधर से गुजरते वक्त विश्राम के लिए यहाँ पड़ाव करते थे। अन्य सामानो के साथ व्यापारी मुख्य तौर पर अफीम ले जाया करते थे। यहाँ के व्यापारी उनके साथ व्यापार करते और उनकी आवभगत भी किया करते थे। उन दिनो रूकने के लिये केवल धर्मशाला हुआ करती थी, जो सेठ लोग बनवाते थे। सेठों ने यहाँ पर विशाल हवेलियाँ बनाई, जिन्हें खूबसूरती से चित्रांकित किया। इनकी बनावट इस तरह से की जाती थी कि बाहर के हिस्से में आगंतुक व्यापारी अपने सहायकों सहित ठहर जाते थे। उनका सामान व वाहन रखने का भी पर्याप्त स्थान बना होता था। अंदर का हिस्सा परिवार के लिये और सामने का हिस्सा जिसे गद्दी कहते थे, व्यापार करने के लिये होता था। हवेलियों के पीछे व्यापारियों के ऊंटो, धोड़ो जिन पर लाद कर सामान लाया जाता था, उनके भी विश्राम की व्यवस्था होती थी। कई हवेलियों में दो चौके या रसोईघर हैं वे शायद व्यापारीयों के लिये अलग भोजन की व्यवस्था के लिये होगे और दूसरा कारण परिवारिक अनबन के कारण यदि परिवार विभाजित होता हो तो सरलता से विभाजन किया जा सके। सारी हवेलियाँ एक या दो चौक(आंगन) की होती थी। सारे कमरे इन चौको के चारों ओर बने हुये हैं। ये चौक हवेलियों में हवा, प्रकाश, सूर्य (विटामिन डी) साथ ही थोडे बहुत फूल पत्ती उगाने के भी काम आते थे। यह ध्यान में रखने की बात हैं कि मुगल आक्रांताओ के कारण अपनी स्त्रियों के सम्मान की रक्षा करने के लिये, इस समय तक स्त्रियों के घर में ही रहने और परदा प्रथा, अपनी जड़े जमा चुकी थी। धीरे-धीरे यहाँ के लोग जीविकोपार्जन के लिए सुदूर शहरों में चले गए। कालांतर में प्रवासी सेठ अपने परिवार सहित कर्मस्थली में ही रह गए और धीरे-धीरे ये विशाल हवेलियाँ विरान हो गई। आज भी कुछ हवेलियाँ भित्ति चित्रों के साथ अपने सुनहरे अतीत के गौरव को दर्शाती शान से खड़ी हैं। इन भित्ति चित्रों के कारण फतेहपुर (शेखावाटी) शहर को दुनिया की ‘ओपन आर्ट गैलरी’ (Open Art Gallery) भी बोला जाता है, क्योंकि इन हवेलियों पर की हुई चित्रकारी को शहर में कहीं भी घूमते हुये देखा जा सकता हैं। फतेहपुर के अलावा आसपास के गाँवों में भी अनेक हवेलियाँ हैं, लेकिन मंडावा गाँव हवेलियों के लिये प्रसिद्ध हैं।
इन भित्ति चित्रों के बनने की भी कहानी भी अनूठी हैं। कहा जाता हैं कि एक बार अकाल पड़ा और लोग परेशान होकर पलायन करने लगें। जब शेखावाटी क्षेत्र के सेठो ने यह देखा तो उन्होने लोगों को काम देने का एक अनोखा रास्ता खोजा, जिससे उनकी मदद भी हो, साथ ही उनका आत्मसम्मान भी बना रहें। लोगों को उनके हुनर के आधार पर काम दिया गया। जैसे कि कीरीगरों को मकान बनाने का, कुछ को व्यापारियों के ऊंटो, धोड़ो को देखने का, जो कुछ भी नहीं कर सकते थे उन्हें पंखा खीचनें का काम इत्यादि। चित्रकारों को हवेली चित्रित करने का काम दिया गया। हम यहाँ की सारी हवेलियों में थोडे बहुत फर्क के साथ समान चित्र ही पाते हैं। हवेली के अंदर की चित्रकला बहुत सुघड़ और सलीके से की गयी है, वहीं बाहर की चित्रकला से साफ पता चलता हैं कि वह नये विद्यार्थी चित्रकारों द्वारा की गई हैं। यहाँ देखने योग्य कई हवेलियाँ हैं, इनमें से कुछ निम्न हैं:-
देवड़ा हवेली या नाडिन ला प्रिंस सांस्कृतिक केंद्र: नाडिन ला प्रिंस सांस्कृतिक केंद्र पहले देवड़ा हवेली के नाम से जाना जाता था, जिस को फ्रांस की एक कलाकार नाडिन ला ने सन् 1998 में खरीद कर इसका संरक्षण करके इस हवेली की कलाकारी को फिर से जीवंत कर देने के साथ -साथ अन्य हवेलियों की कलाकारी को दुनिया के सामने पर्यटक स्थल “ओपन आर्ट गैलरी” के रूप में विकसित कर दिया ।
सिंघानिया हवेली (हवेली) : सेठ जगन नाथ सिंघानिया जी द्वारा 1857 से 1860 तक 3 साल की अवधि में निर्मित भव्य हवेली अपने आप में फतेहपुर शेखावाटी का एक मील का पत्थर है, यह ब्रिटिश राज की कलात्मक मूर्तिकला और भित्ति चित्रों (फ्रेस्को) के लिए जाना जाता है।
इसके अलावा यहाँ देखने योग्य पास के मांडवा गाँव में कई अन्य हवेलियाँ भी हैं जिनमें केड़िया हवेली, सराफ, गोयनका हवेली और चोखानी ड़बल हवेली प्रमुख है।
मंदिर
द्वारकाधीश मंदिर: सेठ आशाराम जी पोद्दार ने सन् 1898 में बनवाया था। यह राजस्थान शैली का अनूठा नमुना हैं। मंदिर शेखावाटी के भित्ति चित्रों से समृद्ध है और श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं को चित्रित किया गया हैं । पता: बिरनिया, फतेहपुर, राजस्थान 332301 हैं।
लक्ष्मी नारायण मंदिर: बाहर से साधारण दिखने वाला मंदिर भीतर से भव्य है। इसका प्रवेश द्वार, कटावदार मेहराब व भित्ति चित्रों से सुसज्जित है। यहाँ का शांत वातावरण मन को शांति प्रदान करता है।
रघुनाथजी मंदिर: बड़ा मंदिर नाम से पहचान बनाने वाला यह मंदिर रतनगढ़ के पास है। 19वीं शताब्दी में बना मंदिर, भगवान विष्णु के अवतार, भगवान रघुनाथ या राम को समर्पित है। यह गढ़ के अहाते में बना है। कहते है यह रावराजा शिव सिंह के समय में बना था।
दो जांटी बालाजी मंदिर: एनएच 52, आगरा-बीकानेर, हाईवे पर स्थित इस हनुमान मंदिर का निर्माण फ़तेहपुर वासी प्रभुदयाल बोचीवाल ने करवाया। इसकी स्थापना 6.10.1992 में हुई थी ।
गोयनका मंदिर: श्री बीरा बरजी मंदिर – एनएच 11, पुलिया, फतेहपुर में स्थित हैं, यह गोयनका मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हैं। मूल मंदिर शताब्दियों पुराना है, यहाँ उनके वंश की स्त्रियों, श्री बीरा बरजी की कुलदेवी के रूप में पूजा की जाती हैं।
धोली सती मंदिर: यह बिंदल गोत्री अग्रवालों की कुलदेवी का मंदिर है।
अमृतनाथ आश्रम: स्वामी अमृतनाथ जी का जन्म पिलानी गाँव में चेतन जाट के यहाँ चैत्र सुदी एकम संवत 1909 को हुआ। बालक यशराम नेकिशोरावस्था में ही ब्रह्मचारी का व्रत ले लिया। संवत 1945 में अपनी माँ के देहावसान के बाद उन्होने महात्मा चंपानाथ से शिष्यवत दीक्षा ग्रहण कर अमृतनाथ रूप सन्यास साधना की ओर बढ़ गए। 24 वर्ष तक भ्रमण करते संवत 1969 हुये यहाँ पर आए। तत्कालीन रावराजा सीकर माधोसिंह भी इनके भक्त थे। 4 वर्ष बाद अश्विन शुक्ल 15 संवत 1973 के दिन यहीं उन्होने शरीर छोड़ा। वहीं उनकी समाधि बना दी गई। कालांतर में विशाल खूबसूरत आश्रम बना दिया गया।
दिगंबर जैन मंदिर: नवाब फतह खाँ के खास मुसाहिब तुहिनमलजी थे जो उनके साथ ही हिसार से आए थे। उन्होने नवाब की अनुमति से उनको दी गई प्रदत्त भूमि पर एक जैन मंदिर बनवाया था। कहा जाता हैं कि तुहिनमलजी अपने साथ दो जैन मूर्तियाँ साथ लाये थे: एक सप्तधातु मूर्ति संवत 1069 (1012 ई.) तथा दूसरी पाषाण की संवत 1113 (1076 ई.) की बनी हुई थी। इस मंदिर में कई प्राचीन शिलालेख, ताम्रपत्र व अन्य पांडुलिपियाँ सुरक्षित हैं। एक शिलालेख के अनुसार इस मंदिर का निर्माण फाल्गुन शुक्ल 2 संवत 1508 (1451 ई.) है।
ख्वाजा हाजी नज्मुद्दीन चिश्ती की दरगाह (पीरजी की दरगाह): ख्वाजा हाजी नज्मुद्दीन चिश्ती का जन्म संवत 1874 में झुंझुणु में हुआ था। वे अपने गुरु के आदेश पर संवत 1890 में फतेहपुर आकर संकड़ी गली में मस्जिद चेजारान में इबादत करने लगे। लोंगो की भीड़ से, इनकी इबादत में खलल पड़ने के कारण वे जलाल खाँ की छोड़ी बीड में आकर रहने लगे। उन्होने अपनी 52 साल की उम्र में 52 किताबें लिखी थी। वे उच्च कोटि के लेखक ही नहीं शायर भी थे। संवत 1927 में झुंझुणु में इनका इंतकाल हो गया।इनकी वसीयत के मुताबिक इन्हे यहाँ दफनाया गया। इनके वारिस हाजी मुहम्मद नसीरुद्दीन ने वहाँ एक मकबरा बना दिया, बाद में इसके ऊपर एक विशाल दरगाह बनाई गई, जो वास्तुकला का नमुना है। यहाँ हर साल उर्स लगता है।
बावड़ी:
फतेहपुर के शासकों और सेठो ने लोगों को पीने का पानी उपलब्ध करवाने के लिये जगह-जगह बावड़ियां बनवाई । ये बावड़ियां शहर के आस पास के गाँवों और सड़क किनारे देखी जा सकती हैं। लेकिन हमारा यह दुर्भाग्य हैं कि हमें अपनी सांस्कृतिक धरोहर के प्रति कोई लगाव नहीं हैं और आजकल आधनिककरण से ये बावड़ीयाँ जो हमारी जीवन-रक्षा की अमुल्य धाती थी, कूड़ेदान बनती जा रही है। अभी समय रहते यदि पूरे राजथान की बावड़ियों को शासकीय और सामाजिक संरक्षण नहीं दिया गया, तो अगले पचास वर्षो में यह अमुल्य धरोहर लुप्त हो जायेगी और पानी की कमी हो जायेगी।
नवाबी बावड़ी: इस ऐतिहासिक बावड़ी का निर्माण दौलत खाँ द्वितीय ने अपने पिता नवाब अलिफ खाँ के राज्यकाल में उसकी अनुमति से 1614 ई में करवाया था। एक समय इसकी गणना विश्व के 17 आश्चर्यों में की जाती है। इसके परिसर में जाने के लिए एक विशाल दरवाजा होता था, जिसे बावड़ी दरवाजा कहा जाता था। प्रशासन और लोगों की उपेक्षा के कारण यह धरोहर आज कचराघर में परिवर्तित हो गई है।
गनेरीवाला तालाब या फतेहपुर बावड़ी: यह बावड़ी या गनेरीवाला तालाब (बियर फतेहपुर) सीकर-फतेहपुर रोड़ पर स्थित हैं। इस बावड़ी की वास्तुकला सरल हैं। इस बावड़ी में चार प्रवेश द्वार हैं, जिससे यह जलाशय चार अलग-अलग इलाको के लोगों के लिए सुलभ था। बावड़ी की दीवारों के बने छेदों के माध्यम से बारिश का पानी, संरचना के केंद्र में जमा होता था। पानी ले जाने के लिये और रिसाव से बचाव के लिए कठोर घने पत्थरों से बनी सीढ़ियाँ बनी हुई थी। यहाँ पर बनी छतरीयाँ महिलाओं की गतिविधियों के लिए भी एक जगह थी, जहाँ पानी भरने के अलावा वे अपनी सहेलियों से मेल मिलाप भी कर लेती थी। इसके अलावा, बावड़ियों का उपयोग सांस्कृतिक गतिविधियों और सामाजिक कार्यों के स्थान के रूप में भी किया जाता था। प्रशासन और लोगों की उपेक्षा के कारण यह धरोहर भी आज कहीं खोती जा रही है।
अन्य पर्यटक स्थल
पिंजरा पोल: श्रावण शुक्ल पूर्णिमा संवत 1937 को राजस्थान की पहली पिंजरपोल की स्थापना गंगाराम देवड़ा के परिवार ने की। यह लंबे समय तक चल नहीं पाई। तत्पश्चात संवत 1996 में फतेहपुर वासी आप्रवासियों ने इसे पुनर्जीवित किया। तत्कालीन रावराजा माधवसिंह के भूमिदान और मनसाराम राम दयाल नेवटिया के अर्थ सहयोग से उचित स्थान बना। कालांतर में जयदयाल कसेरा की माँ ने 1100 बीघा भूमिदान किया और एक कुवाँ भी बनवाया। रावराजा कल्याणसिंह ने 567 बीघा जमीन दान की और ज्वालाप्रसाद भरतिया ने 27 फूट चौड़े पाट का कुवाँ तैयार करवा दिया ताकि चारे की उपज होती रहे। यह एक अनूठा संस्थान है और सुव्यवस्थित रूप से चल रहा है।
जंतर-मंतर: इसका निर्माण रायबहादुर रामप्रताप चमड़िया ने गोविंददेव मंदिर के पास, मार्ग शीर्ष कृष्णा 10 संवत 1997 ( सन्1910) में चमडिय़ा कॉलेज में करवाया था। इसके साथ ही संस्कृत कॉलेज की स्थापना भी की थी। यह जयपुर के जंतर-मंतर का ही प्रारूप है। सम्पूर्ण देश में केवल तीन ही जंतर-मंतर स्थापित हैं दिल्ली, जयपुर और फ़तेहपुर। यह फ़तेहपुर के लिये एक गौरव की बात है। इस जंतर मंतर में सूर्य घड़ी, स्थानीय समय घडी, और नवग्रह घडिय़ां बनी हुई है। सूर्य घड़ी से ज्योतिष की गणनाएं की जाती है। स्थानीय समय घड़ी में सूर्य किरणों का समय मापा जाता है। इससे ज्योतिष विज्ञान में जातक लग्न तय करने और जन्म पत्रिका बनाई जाती थी। नवग्रह घड़ी से सूर्य किस राशि में स्थित है, इसके साथ ही सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण कब होगा यह भी जाना जाता था। एक समय इस जंतर-मंतर के आधार पर प्रख्यात पंडित श्रीबल्लभ मनीराम सालाना पंचांग तैयार किया करते थे। आज भी यह यंत्रालय सुरक्षित है, परंतु उचित देखभाल की आवश्यकता है।
फतेहपुर का किला: नवाब फतह खाँ ने पास के गाँव रिणाऊ में रहकर संवत 1506 में नवीन शहर के लिए किला बनाना शुरू किया था। संवत 1507 की समाप्ती के कुछ दिन पहले नवाब, दिल्ली का स्वामित्व स्वीकार न करने के कारण बहलोल लोदी द्वारा हिसार से निकाल दिये गए। फतेहपुर का गढ़ दो वर्षों में बन कर तैयार हुआ और नवाब फतहखाँ ने अपने दरबारियों, विश्वस्त मुसाहिबों, कर्मचारियों, सैनिकों आदि पूरे दल के साथ चैत्र शुक्ल 5 संवत 1508 1451 ई.) को इसमें प्रवेश किया था।
रामगोपाल जी गनेड़ीवाल की छतरी: संवत 1943 में रामगोपाल जी गनेड़ीवाल ने अपने पिता हिरालाल जी की याद में यह सुंदर छतरी शहर के दक्षिण की ओर बनाई थी।
बुद्धगिरी की मंडी: समीप के बलारा गाँव में एक धाभाई गुर्जर के घर बाल बुद्धराम ने संवत 1827 में जन्म लिया था। संवत 1847 में इस शहर के दक्षिण सीमा पर एक टीले के ऊपर कंकेड़े के पेड़ के नीचे बैठ कर अपनी तपस्या करने लगे। धीरे-धीरे उनका यश फैला और सीकर नरेश लक्ष्मण सिंह भी इनके शिष्य बन गए। संवत 1862 फाल्गुन कृष्ण वार रविवार को 35 वर्ष की आयु में नागरिकों और रावरजा लक्ष्मण सिंह के सम्मुख जीवित समाधि ली। तब से यहाँ शिवरात्रि के दिन विशेष अर्चना होती है और मेला लगता है।
सरस्वती पुस्तकालय: कलकत्ता निवासी बासुदेव गोयनका ने अपने व्यक्तिगत ग्रंथ संग्रह व श्रीकृष्ण जालान के सहयोग से बैसाख शुक्ल 6 संवत 1967 सरस्वती पुस्तकालय की नींव बाजार में एक दुकान के ऊपर के चौबारे में रखी। एक वर्ष बाद यह लक्ष्मीनाथ मंदिर के भवन में स्थानांतरित किया । नागरमल गोयनका के आर्थिक सहयोग से सरस्वती पुस्तकालय का निजी भवन बनवाया गया औरकार्तिक शुक्ल 5 संवत 1993 को इसे स्थानांतरित कर दिया गया। यह ” प्राचीन पुस्तको व पाण्डुलिपियों धरोहरों के लिये विख्यात है।
संदर्भ:
हवेली
https://www.india.com/travel/articles/the-fascinating-story-of-the-abandoned-havelis-of-shekhawati-in-rajasthan-3232630
मंदिर
https://hindi.news18.com/videos/etv-shows/aarti-importance-of-laxminath-ji-mahraj-temple-in-rajasthan-1096164.html
द्वारकाधीश मंदिर
https://www.youtube.com/watch?v=D7wGWOAJ5-4
फतेहपुर बावड़ी
https://voyagerchitara.com
फतेहपुर इतिहास
https://en.wikipedia.org/wiki/Hansi
https://www.jatland.com/home/Fatehpur_Sikar
https://www.gkexams.com/ask/60862-Fatehpur-Shekhawati-History-In-Hindi
https://www.jatland.com/home/Firozshah_Tughlak
www. Kayamkhani – Jatland Wiki
https://www.indiatimes.com/news/india/fossils-discovered-indicate-rajasthan-desert-was-submerged-under-sea-47-million-years-ago-349342.html)
रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, फतेहपुर दर्पण
श्री गोपाल दिनमणि : फतेहपुर परिचय
राजेन्द्र कसवा: मेरा गाँव मेरा देश (वाया शेखावाटी),
Thakur Deshraj: Jat Jan Sewak,
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